दारी मेट। : महाराष्ट्र का एक गाँव

हर रात

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हर रात बिस्तर की सलवटें हटाते हुए

मेरी हथेलियांे चुप हो जाया करती हैं

एक सोच

चहुँ ओर पसरने लगता है

अपने लेटने की जगह ठीक करने के प्रयत्न में बीतते वर्ष

मुझे लगातार उलझाए रखते हैं

सवा पांच फीट लम्बी खुदी हुई जगह के बिम्ब मेरे साथ चलते हैं

बन्द अंधेरी जगह में लेटने की कल्पना अक्सर सहमा देती है

चन्दन की एकाध मन लकड़ी और घी का बड़ा टिन भण्डार गृह में

रखने का ख्याल आता है

बच्चों को सारी बात समझाने के क्रम में

मैं

फिर उलझ जाती हूँ

बुझी हुई राख और धूममार्ग की अनदेखी अन्तहीन यात्रा की कल्पना

मेरे अन्दर के सारे रंगों को धो-पोछकर

रंगहीन बना डालती है

दूसरे लोक अभी तक मेरे स्वप्नों में भी नहीं आ पाए हैं

अनजानी यात्रा का भय लगातार कंधों पर सवार है

सारे निर्णयों को भविष्य पर छोड़कर एक लम्बी सांस

फिर से अपने स्टडी टेबल पर पसरे हुए नीम अंधेरे दंभ को

महसूस करना चाहती हूँ

जो

टेबल लैम्प से झरते हुए चमकीली रौशनी के वृत्त द्वारा सोख लिया जाता है

कुछ साल और उसी स्टडी टेबल पर अल्लसुबह बैठ सकने की आकांक्षा

स्वप्न की तरह मेरे चारों तरफ फैलती हुई .