ठिठकी हुई वह बूंद

गम्हार के तने के निकट

बूंद

स्वयं को रच रही थी

परदर्शिता की झिलमिली के अंदर

सुडौल गढ़न के क्रम में

कंपनों के बीच थरथराती उसकी देह

लगातार आगे बढ़ रही थी

वह

विश्व रचने जा रही थी

पहले अमरुद के पत्ते

और जामुन की डालियां सतह पर उभरीं

फिर स्वयं गम्हार का तना

वहां प्रतिबिम्बित हुआ

तभी

पृथ्वी की ऊपरी तह

वहां उभरने लगी

साथ ही ललछौंहे सूर्य का भास

अलक-पलक तक संवरी

एकाकी पत्ते के शीर्षाग्र पर अटकी हुई

बूंद

खुली हथेली पर आ टिकने को हुई आतुर

जीभ की नोंक से टकराते

निर्मल जल की तुर्शी के साथ

अनजाने विस्मृत स्वाद

कण-कण से निकल पड़े

क्षणांश के लिए मां के दूध की गंध

मुझसे आ टकराई

फिर

शीतलता सिरजती अखंडित धाराओं की अजस्त्र उत्फुल्लता

न्हीं

वह कोन्याक की तीखी धार-सी नहीं थी

शायद

रक्त

हां

ठिठकी हुई वह बूंद

विश्व बनने जा रही थी