किन्हीं रात्रियों में

किन्हीं रात्रियों में

जब अचानक हवा का वेग किसी खास पगध्वनि के बीच लरज़

उठता है

और मैं पोर्टिको के बगल वाली छोटी दीवार पर बैठी होती हूँ

मोटे खंभे से पीठ टिकाए हुए

बगर की क्यारियों में डायन्थस की बैंगनी और गुलाबी पंखरियां

फरफराती हैं

जरबेरा का मद्धम श्वेत पुष्प अपना मुंह पृथ्वी की ओर थोड़ा झुका

लेता है

मानो शर्म से

उसी समय

मेरे अन्तर से जनमती हुई आकांक्षा मुझे घेर लेती है

जानती हूँ तुम्हें ये कान सुन नहीं पाएँगे

इन आंखों की दृष्टि से परे हो तुम

तुम

मेरी समस्त इंन्द्रियों के महसूस से दूर हो जैसे

ठीक इसी समय

वह आकांक्षा सांप की तरह फहर कर लहरा उठती है

तनकर खड़ी हो जाती है

घास की नर्म हरी परत के ऊपर से लेकर

वहां आर्द्रा स्वाति नक्षत्रों के बीच तक

तुम्हें देखने महसूस कर पाने की अदम्य आकांक्षा

अपने समस्त संुदर कोमल भावों के साथ

मैं

यहां

तुम्हारी प्रतीक्षा में

तुम्हारा आना महसूस करने की यह स्वप्रतीक्षित बेला

मुझे आमंत्रित करती है

तुम दृष्टि से दृष्टव्य नहीं

कानों से श्रोतव्य नहीं

त्वचा के स्पर्श के घेरे से दूर हो तुम

फिर भी

कैसे

किस भांति

तुम मेरे अन्दर हो

बाहर भी

इस अनाम गन्ध से पूरित वायु की भांति

तुम मुझे चारों ओर से घेर लेते हो

उसके बाद

बिना भाषा

बिना शब्दों के कहते हो

यह मैं हूँ

हां

यही हूं मैं .