काश कि मैं जान पाती

रुक-रुक कर कहे गए

लफ्जों के अनियमित आकार के भीतर

क्या बंधा रहता है

काश कि

मैं जान पाती

ठिठक झिझक कर कहे गए अल्फाजों के अंदर

एक चुप सा मौन जो ठहरा हुआ रहता है

सिर्फ वही नहीं हो तुम

उसके वजूद के पीछे

खड़ा यह झुनक भरा सन्नाटा जो दुलराता है

सहमति असहमति के बीच

जो जड़ होकर रह जाता है

उसकी परछाईं के पीछे

मोमबत्ती की लौ जो कांपती है

वह भी नहीं हो तुम

लटपटाती लौ से परे

छिटक कर

यह जो सुनहला वृत्त सहसा लम्बवत् हो

भिड़के दरवाजे से टिककर

खड़ा हो जाता है

कुछ क्षणों का उद्वेलन

फिर इच्छा अनिच्छा से परे

वह स्वेच्छा से ही तिरोहित हो जाता है

वह भी नहीं हो तुम

स्वतः खुद ही आकर रमता है जो

इस सूने पट्ट निविड़ अंधकार में

अंधेरे को टटोलकर एक तीली घिसता है

भक्क् से जोत उठ आती है

उसमें लुका-छुपा हुआ क्षण भर का

संवाद भी नहीं हो

तुम

तुम इनमें से कुछ भी नहीं हो शायद

तुम नहीं हो ये सब

लेकिन तुम हो

मेरे हर क्षण पर अपनी उपस्थिति को सिरजकर

इन अवधूत प्रयाणों के पार

ठिठके खड़े.