बेपरवाह उगा अकेला तारा

बालों भरे जिस्म को बाहर-भीतर से

कोई सच ढंक लेता है

किनारों पर उगी हुई प्यास

ज़मीन से शुरू होकर आसमान तक फैलती हुई

एकबारगी उझककर वह कौंध

लपट में तब्दील होती है

रात गहराने पर पुरवाई के संग कुछ

अनजान हवाएँ यहाँ चली आएँगी

जिनके सुरों में खुद खुशबुओं ने रंग घोले हैं

सुरमई बरसात में ढके दिन

बरसों-बरस अपनी ताज़गी बनाए रक्खेंगे

अनाम देश में आधी रात के बाद देखे गए

उनींदे स्वप्न की भांति

अंधेरी रात में बेपरवाह उगा अकेला तारा

पूरी धरती का साथ

सुबह के धुंधलके तक निभाता हुआ .